धर्म के आधार पर जीवन का आनंद
संसार के प्रत्येक जीव में भगवान का अंश होता है। संसार के सच्चिदानंद ईश्वर ही हैं। आनंद भगवान का स्वरूप है। प्रत्येक व्यक्ति उसी आनंद-स्वरूप की कामना रहता है। यही कारण है कि मानव की प्रकृति आनंद की है, लेकिन होता क्या है कि व्यक्ति अपने आनंद के क्षणों को गंवा कर दुःख-सागर में गोते लगाने लगता है।
लेखिका- बंदना
हर कोई चाहता है कि जीवन में आनंद की प्राप्ति हो, और ये स्वाभाविक भी है। ऐसा हो भी क्यों ना? संसार के प्रत्येक जीव में भगवान का अंश होता है। संसार के सच्चिदानंद ईश्वर ही हैं। आनंद भगवान का स्वरूप है। प्रत्येक व्यक्ति उसी आनंद-स्वरूप की कामना रहता है। यही कारण है कि मानव की प्रकृति आनंद की है, लेकिन होता क्या है कि व्यक्ति अपने आनंद के क्षणों को गंवा कर दुःख-सागर में गोते लगाने लगता है। मानव अगर कोशिश करें तो उसके जीवन में वर्तमान किंतु छिपा हुआ आनंद मुखर हो उठेगा। पग-पग पर आनंद दिखाई देने लगेगा। आनंद की अनुभूति होने लगेगी। जो भी उसके सम्पर्क में आएगा उसके भीतर भी आनंद अंकुरित हो उठेगा और पुष्पित -पल्लवित हो जाएंगे। इसके लिए हमें अपने विचारों को संस्कारित करना होगा।
ख़ास बात तो यह है कि हमें अपने मन कि राह बदलनी पड़ेगी। मन का आनंद से सीधा और गहरा सम्बंध है। लेकिन मन है कि हमारी ही ग़लती से नकारात्मक विचारों का अड्डा बना बैठा है। अतः हमें चाहिए कि हम अपने मन और बुद्धि से नकारात्मक विचारों को निकाल कर उसकी जगह सकारात्मक विचरों को स्थापित करें। ऐसे कई लोग हैं जो हीन भावनाएं, असफलताओं का डर, अपमान की आशंका, मृत्य का डर, काम बिगड़ जाने का भय, रोग की अशंका, परिजनों के विछोह की आशंका आदि ऐसे कई नकारात्मक विचारों का डेरा अपने मन में डाले रहते हैं। उनसे व्यथित होते रहते हैं और इससे वे अपने जीवन में विष घोलते रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि आनंद मात्र कल्पना की वस्तु बन कर रह जाती है। होना यह चाहिए कि हर सुखद-दुखद एवं सम-विषम परिस्थितियों में हम अपना मानसिक संतुलन बनाएं रखें।
यह जो संसार है इसका स्वरूप द्वंदात्मक हैं। सुख-दुःख, मान-अपमान, हानि-लाभ ,यश-अपयश, निंदा-स्तुति, सफलता-असफलता आदि धूप-छांव या दिन-रात की भांति जीवन में आते रहे हैं और आते ही रहेंगे। अगर हमें आनंद चाहिए तो हम इन सभी परिस्थितियों में अपना मानसिक संतुलन बनाए रखें। अध्यात्म इसे “समत्व-योग” या “स्थितप्रज्ञ” का नाम देता है।
गीता के प्रमुख उपदेशों में यह एक “श्रेष्ठ योग” है और दर्शन में “मन की स्थिति” । यदि हम इन द्वंदात्मक परिस्थितियों को समान दृष्टि से देखें, विचलित ना हो, अपना आपा ना खोयें और सम बने रहें तो निश्चित ही जीवन में आनंद की प्राप्ति होगी। क्रोध,आनंद का शत्रु है। क्रोध का समन क्षमा से होता है।
प्रतिशोध की क्षमता रखते हुए भी बुरा करने वाले को क्षमा कर देने से हृदय में शीतलता आ जाती है और आनंद का द्वार खुल जाता है। वास्तविक आनंद का एकमात्र स्रोत भगवान है जो सभी के हृदय में विराजमान है। हमें जीवन के आनंद का अनुभव करना हैं तो हमें भगवान की ओर उन्मुख होना चाहिए, उन्हीं का चिंतन-मनन करना चाहिए ,स्मरण करना चाहिए और उनके प्रेम में डूब जाना चाहिए। हमारी उनसे लगन जितनी सच्ची और प्रगाढ़ होगी, हम उतने ही अधिक आनन्दित बने रहेगें ।